अब उधर की बात सुनिए। मरहठे ने चरन सिंह का शब्द सुन लिया। उसने गोली चलाई, परंतु खाली गई। मरहठा दूसरे साथियों को लेने के लिए घोड़ा दौड़ा कर चल दिया।
धर्म सिंह- चरन, मालूम होता है कि उस दुष्ट ने तुम्हारी आवाज सुन ली। वह अपने साथियों को बुलाने गया है। यदि उसके आने से पहले-पहले हम दूर नहीं निकल जाएँगे, तो समझो कि जान गई। (मन में) यह बोझा मैंने क्यों उठाया, यदि मैं अकेला होता तो अब तक कभी का निकल गया होता।
चरन सिंह- तुम अकेले चले जाओ, मेरे कारण प्राण क्यों खोते हो?
धर्म सिंह- कदापि नहीं, साथी को छोड़ कर चल देना धर्म के विरुद्ध है।
धर्म सिंह फिर चरन सिंह को कंधे पर लाद कर चलने लगा। आधा मील चलने पर एक झरना मिला। धर्म सिंह बहुत थक गया था। चरन सिंह को कंधे से उतार कर विश्राम करने लगा। पानी पीना ही चाहता था कि पीछे से घोड़ों की टापें सुनाई दीं। दोनों भाग कर झाड़ियों में छिप गए।
मरहठे ठीक वहीं आकर ठहरे, जहाँ दोनों छिपे हुए थे। उन्होंने सूंघ लेने को कुत्ता छोड़ा। फिर क्या था, दोनों पकड़े गए। मरहठों ने दोनों को घोड़ों पर लाद लिया। राह में संपतराव मिल गया, अपने कैदियों को पहचाना। तुरंत उन्हें अपने साथ वाले घोड़ों पर बैठाया और दिन निकलते-निकलते वे सब ग्राम में पहुँच गए।
उसी समय बू़्ढ़ा भी वहाँ आ गया। सब मरहठे विचार करने लगे कि क्या किया जाए। बू़्ढ़े ने कहा कि कुछ मत करो, इन दोनों का तुरंत वध कर दो।
संपतराव- मैंने तो उन पर रुपया लगाया है, मार कैसे डालूँ?
बूढ़ा- राजपूतों को पालना पाप है। वे तुम्हें सिवाय दुःख के और कुछ न देंगे, मार कर झगड़ा समाप्त करो।
मरहठे इधर-उधर चले गए। संपतराव धर्म सिंह के पास आया और बोला- देखो धर्म सिंह, पंद्रह दिन के अंदर यदि रुपया न आया, और तुमने फिर भागने का साहस किया, तो मैं तुम्हें अवश्य मार डालूँगा, इसमें संदेह नहीं। अब शीघ्र घर वालों को पत्र लिख डालो कि तुरंत रुपया भेज दें।
दोनों ने पत्र लिख दिए। फिर वे पहले की भाँति कैद कर दिए गए, परंतु कोठरी में नहीं, अब की बार छः हाथ चौड़े गड्ढे में बंद किए गए।